Thursday, October 18, 2012

अधिकारों से वंचित करता केन्द्रीयकरण


सुषमा सिंह
ग्राम स्वराज विषय पर  मेघनाथ जी से हुई बातचीत 

ग्राम स्वराज आज भी महत्वपूर्ण है। मेरा मानना है कि विकेन्द्रीकरण हमें इन्सानियत का रास्ता दिखाती है जो केन्द्रीकरण फांसीवाद का। एफडीआई या वालमार्ट क्या है? केन्द्रीय कंपनी केन्द्रीय फायदे के लिए। गांव से आने वाला उत्पाद सबके लिए लाभप्रद होता है। उदाहरण के तौर पर अमूल को लिया जा सकता है जो सहकारिता के माध्यम से विकेन्द्रीकरण से केन्द्रीकरण तक आता है। केन्द्रीकरण की ताकत भी भ्रष्टाचार का कारण है। इसमें बीच में मिलने वाले हिस्से की वजह से विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है। पंचायती राज की बात करें तो आज तक सरकार पेसा पंचायत एक्सटेंसन टू सिडयूल ऐरिया एक्ट को लाने के लिए तैयार नहीं है। पंचायत को अधिकारों से वंचित रखा गया है। झारखंड जैसे नये राज्यों में भी पंचायत के हाथ बंधे हुए ही है। अगर इनके पास निर्णय लेने का अधिकार हो तो यह गांव आर्थिक के साथ ही विचार की दृष्टि से भी ऊपर उठ सकते हैं। इसके अभाव में यह सिर्फ गुलाम बन कर रह जाएंगे। 

शिक्षा आज मशीनीकृत और केन्द्रीकृत हो कर रह गई है। अगर हम इतिहास की बात करें तो वह भी हमें केन्द्र के अनुसार ही बताए जाते हैं। विकेन्द्रकरण होने पर हर छोटी-बड़ी जगह और व्यक्ति का इतिहास हमारे सामने होता है। तक हम गांव, जिला, राज्य और देश सभी का इतिहास जान पाते हैं। सिर्फ गिने चुने नाम या जगहों के नहीं। उसी तरह भूगोल में भी हम देश-विदेश के नदियों के नाम तो जान लेते हैं। लेकिन अपने गांव के पास में बहने वाली नदी का नाम नहीं जान पाते हैं। केन्द्रीकरण के कारण किसान का उगाया अनाज तो खाते हैं लेकिन खेती-बाड़ी के बारे में जानने की इच्छा नहीं रखते हैं। चीन ने तो एलोपैथिक दवाओं को बढ़ावा दिया। जबकि हम आयुर्वेद को भूलाते जा रहे हैं। अंग्रेजी दवाओं पर निर्भर होने लगे हैं। 
योजनाएं गांवों के लिए बनाई तो जाति है लेकिन एसी बंद कमरों में गांव की पृष्ठभूमि को कैसे समझा जा सकता है। खेती की योजना जिले स्तर पर भी भिन्न- भिन्न हो सकती है। तरीका क्या होगा यह बात अहम है। केन्द्रीयकरण को बिल्कुल से नकार देना भी सही नहीं है क्योंकि जातिवाद और खाप पंचायत जैसी समस्या गांव में ही पाई जाती है। ऐसी रूढ़ीवादिता के खात्मे की जरूरत है। 
अंबेडकर जी ने केन्द्रीय ढांचे में कुछ बातों पर ध्यान नहीं दिया फिर भी वह सही है। ग्राम स्वराज में कुछ समस्याएं तो है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। लेकिन सामाजिक आंदोलन से तोड़ा जा सकता है। जैसे सती प्रथा को उठाना केन्द्रीय आंदोलन था। विकेन्द्रीयकरण में करूतियों को हटाना आवश्यक है। जिसमें केन्द्रीय समाजिक आंदोलन से बदलाव लाया जा सकता है। 
हाल ही में नया जंगल कानून आया है। जिसमें क्षेत्र में लोगों को बसाने की बात की गई है। जबकि इस समस्या का समाधान पंचायत स्तर पर भी किया जा सकता था। आज हमारे नेता, प्रतिनिधि इन्सान से रिश्ता रख ही नहीं पाता है। वह सिर्फ स्वार्थ और सत्ता में निहित हो जाता है। गांव के बीच केन्द्र में गया व्यक्ति भी गांव के बारे में नहीं सोच पाता है। इससे बड़ी बिडम्बना और क्या हो सकती है। आज सत्ता और जनता के बीत की दूरी बढ़ती जा रही है। दिल्ली में बैठा व्यक्ति जो सिर्फ बस्तर के बारे में सुना हो वह उसके बारे में क्या जान सकता है और निर्णय ले सकता है कि वहां क्या होना चाहिए क्या नहीं। विधानसभा में बैठ कर गांव के विकास की बाते तो हो सकती है लेकिन वास्तविकता में ग्रामीण विकास के लिए विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। गावं का मुखिया अपने गांव के लोगों से ऐसा रिश्ता रखता है जो केन्द्र में शासित सरकार का नहीं हो सकता। गांव की पंचायत का फैसला करने वाला उनके गीच का होता है। आस-पास के 5-10 किलोमीटर तक के लोग होते हैं। उनका एक रिश्ता होता है। वह अपने शासक को देख सकते हैं, जानते हैं। ताकत और दूरी किसी भी रिश्ते को मजबूत करती है। यही साकारात्मक निर्णय का कारण भी बनता है। 

Saturday, September 22, 2012

स्वस्थ्य गाँव बनाने का संकल्प

शहरों में अस्पताल और स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा तो मिल जाती है लेकिन गांव की अस्वस्थ्यता पर भी किसी की नजर चली ही गई। हरियाणा के सोनीपत जिले में दो गांव हरसाना और राठधना को पूर्णतः स्वस्थ्य बनाने के लिए हाल ही में एक साल के पाइलट प्रोजेक्ट को अस्तित्व में लाया गया है। इस प्रोजेक्ट की कामयाबी के बाद धीरे-धीरे प्रत्येक जिले के एक-एक गांव को इस योजना में शामिल किया जाएगा। इसका जिम्मा आयुष विभाग ने लिया है। विभाग के सदस्य सबसे पहले दोनों गांव के हर एक घर में जाकर दौरा करने के साथ ग्रामीणों को स्वस्थ्य रहने के तरीके बताएंगे। आयुष विभाग की उपनिदेशक डा. संगीता नेहरा के नेतृत्व में प्रोजेक्ट को अंजाम दिया जाएगा इसका कारण है वह पिछले छह सालों से उनके लिए कार्य कर रही है। डा. विनय चैधरी राठधना में योजना की कामयाबी के लिए सहायता कर रहे हैं। उनका लक्ष्य गांव का हर घर स्वस्थ्य करना है जिसके पूरे होते ही प्रोजेक्ट अपने आप ही पूरा हो जाएगा। 
खास बात यह है कि योग साधना और घर में ही मौजूद वस्तुओं के इस्तेमाल से ही गांव को स्वस्थ्य बनाने के नायाब तरीकों का इस्तेमाल किया जाएगा। गांव में जाकर आयुष विभाग के चिकित्सक ग्रामीणों को दवाओं  की जगह ध्यान के माध्यम से स्वस्थ्य रहने के बारे में बताएंगे। प्रोजेक्ट के तहत ग्रामीणों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने के साथ ही विभाग के टीम दोनों गांव में घर-घर जाकर लोगों बातचीत करके उनकी समस्याओं को समझेंगे।  हर सप्ताह का शनिवार दिन दौरे के लिए सुनिश्चत किया गया है। डाक्टर गांव के स्कूलों में बच्चों को स्वास्थ्य के प्रति सजग करेगें। औषधीय पौधों और उपयोगी मसालों के बारे में गांव में प्रदर्शनी आयोजित होगी।
दूसरी बात यह कि हमारी रसोई में उपस्थित रोजमर्रा की चीजों काली मिर्च, जीरा, अजवायन, तुलसी, हल्दी, मेथी आदि के उपयोग से भी कई बीमारियों से कैसे बचा जा सकता है इसकी जानकारी दी जाएगी। कैसे यह प्राकृतिक प्रतिरोधक का काम करते है इसके महत्व को समझाने की जरूरत है। हर घर में साधारण तौर पर उपलब्ध होने वाले 5 औषधीय पौधे जैसे अश्वगंधा, तुलसी, गिलोए, लेमन ग्रास लगवाया जाएगा।
आयुष विभाग की उपनिदेशका डा. संगीता नेहरा का कहना है कि सिर्फ पानी की मात्रा कितनी होनी चाहिए। पानी पीने का अगर हमारा तरीका ठीक हो तो हम बहुत सारी बीमारियों से बच सकते हैं। हमारे शरीर में प्रारंभ से ही आत्म चिकित्सा शक्ति होती हैं। इस शक्ति को योग व ध्यान के द्वारा और बढ़ाया जा सकता है, जो हमें सामान्यतः रोगों से दूर रख सकता है। हमें अपनी दिनचर्या पर ध्यान देना चाहिए। जैसा कि अकसर किया जाता है सुबह उठते ही चाय पीते हैं, जो स्वास्थ्य के बिल्कुल सही नहीं है। इसलिए पूरे परिवार की दिनचर्या का सही होना जरूरी है। हमारा ठीक ढंग से आहार लेना हमारे लिए अमृत का काम करता है। वही उनकी सहयोगी रीता कहती है कि योग और ध्यान से बहुत सी बीमारियों से दूर रहा जा सकता है। यही कारण है कि गांव में इसका प्रशिक्षण दिया जाना उचित है। हम इनके द्वारा अपने ही अंदर व्याप्त शक्तियों को रोग से लड़ने के लिए अधिक प्रभावी बना सकते हैं।
तीसरी बात मनुष्य की स्वस्थ्यता सिर्फ शारीरिक रूप से ही आवश्यक नहीं है अपितु  मानसिक रूप से स्वस्थ्य रहना जरूरी है। शारीरिक, मानसिक व आत्मिक रूप से स्वस्थ होने पर ही किसी को पूर्ण रूप से स्वस्थ्य कहा जा सकता है। इसके लिए गांवों में प्रत्येक शनिवार को योग व ध्यान का प्रशिक्षण ग्रामीणों को दिया जाएगा। भारतीय आयुर्वेदिक पद्धति के अनुसार योग व ध्यान द्वारा मनुष्य बिना दवाईयों के पूर्ण तौर पर स्वस्थ्य रह सकता है। हमारे हर एक सेल को आक्सिजन की जरूरत है जिसके लिए प्राणायाम काफी उपयोगी है। इन सबके अलावा यदि बीमारी गंभीर है तो उन्हें चिकित्सालय में इलाज के लिए भेजा जाएगा। लेकिन 80 प्रतिशत सामान्य बीमारियां ही होती है जो आगे जा कर बढ़ जाती है। अतएव शुरूआती इलाज ज्यादा महत्वपूर्ण है। उदाहरण स्वरूप एक महिला को आठ साल से नजले की बीमारी थी जो प्रणायाम द्वारा पूरी तरह बिना किसी दवा के ठीक हुई। 
जैसा की आकड़े बताते हैं कि  हरियाण में लड़कियों की संख्या कम है जिसे ध्यान में रखते हुए कन्या भ्रूण हत्या को रोकने का प्रयास करेंगे। इसके लिए सोच में बदलाव लाना जरूरी है। इसके लिए प्राथमिक तौर पर शिक्षित करना होगा। लिटिल एंजल स्कूल के निदेशक आशिश आर्य भी प्रोजेक्ट के काम में लगे हुए है साथ ही माॅडल टाउन में   मानसिक रूप से अस्वस्थ्य बच्चों के लिए स्कूल भी खोला है जिसमें फिलहाल 60-70 बच्चे हैं। इनका कहना है कि गांव की पूर्ण स्वस्थ्यता इनका भी सपना है। आज के समय में डाक्टर भी ग्रामीण इलाकों में काम करने के लिए नहीं आना चाहते हैं। इसीलिए गांव में ऐसे प्रोजेक्ट की आवश्यकता है।  



सुषमासिंह

Thursday, August 9, 2012

भ्रष्टाचार मिटाने की पहल


संस्थाओं के लिए दिए गए सरकारी फंड का 40 प्रतिशत उनके तंत्र के लोग ही रखते हैं बाकि 60 प्रतिशत ही संस्था तक पहुँच पाता है|


लगभग दस साल पहले प्रारंभ हुई गैर सरकारी संस्था ‘नवजीवन’ सामाजिक, न्यायिक और स्वास्थ्य जैसे तीन क्षेत्रों में काम कर रही  है। सामाजिक कार्य के तौर पर लोगों को जागरूक करना, जिससे समाज में फैल रही परेशानियों का हल निकाला जा सके। स्वास्थ्य शिवरों का अयोजन, झुग्गी-झोपड़ी के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को आहार में न्यूट्रिसन देना और जरूरत मंदो को न्याय दिलाने की अनूठी मुहिम, यहां जारी है। इनके सदस्यों की संख्या 162 हैं। संस्थापक शशिकांत पांडा का कहना है कि वह देश से भ्रष्टाचार को मिटाना चाहते हैं। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा नीचले या मध्य वर्ग को ही भुगतना पड़ता है। इस कारण उनका जोर न्यायिक व्यवस्था की ओर ज्यादा है, यहां लोक या जन शिकायत को लिया जाता है। जिसके लिए देश में तो मदद के लिए प्रधानमंत्री से लेकर जिलाधिकारी तक सभी ने इनकी सराहना की हैं। विदेशों में भी 176 देशों से मानवाधिकार मुद्दे पर साथ मिलकर काम हो रहा है।
संस्था का मानना है कि गरीब और बेसहारों की सेवा करना भगवान की सेवा करने जैसा  है। संस्था की योजना है कि आने वाले समय में भारत के हर एक गांव में इनके स्वयं सेवक मदद के लिए उपस्थित होंगे। इन्होंने हिमाचल, बिहार, झारखंड, राजस्थान, उडि़सा, बंगाल, मुम्बई, यूपी में समाज और न्यान को लेकर काफी लोगों की मदद की है। अब इनका रूख दक्षिण भारत की ओर हो रहा है। वर्तमान समय में एनजीओ पैसा कमाने का धंधा बनता जा रहा है ऐसे में पैसा उनके हाथों में जाता है जिन्हें कमाने की धुन है न की वास्तव में काम करने वालों के पास। 
शिक्षा के लिए इनका विद्यालय मदनपुर खादन में खोला गया है जिसमें श्री राम शिक्षा पीठ के साथ मिलकर लगभग 200 अनाथ, निसहाय, गरीब बच्चों को शिक्षित किया जाता है। संस्था की यूएनओ में सदस्यता की चाहत वास्तविक हालात को समझने और सही रूप में काम कर पाने के लिए है। क्योंकि सिर्फ कह देना कि एनजीओ के पास विदेशी रुपया आ रहा है काफी नहीं है। क्या, कितना, कैसे, किसके लिए और कब आ रहा है इसकी जानकारी होना भी आवश्यक है। आर्थिक आभाव में समाज सेवा करना थोड़ा मुष्किल हो जाता है। फिर भी इस संस्था को आ रही कोई भी सहायता सीधे जरूरतमंद तक पंहुचाया जाता है। 
संस्था ने दिल्ली समाज कल्याण विभाग के बारे में साफ कहा है कि संस्थाओं के लिए दिए गए सरकारी फंड का 40 प्रतिशत उनके तंत्र के लोग ही रखते हैं बाकि 60 प्रतिशत ही संस्था तक पहुँचता है। इन्होंने पौश्टिक आहार, प्रदूषण, जल, मिट्टी, पोलियों और एड्स जागरूकता आंदोलन, कृषि, प्राकृतिक आपदा, महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य जैसे विषयों पर देश भर में काम किया है। इसके बाद भविष्य में इनकी बाल अनाथालय निर्माण की योजना है। नेक काम में जिस तरह अड़चने आती है इनके साथ भी आई। सरकार को पूछे गए सवालों का जवाब न मिलना या मदद के नाम पर केवल आश्वासन देना। आर्थिक संकट में भी संस्था को काम के साथ जीवित रखना। अन्य एनजीओ से तालमेल के बारे में इनका मानना है कि वैश्विक तौर पर काम करना ज्यादा उचित है। भारत को भ्रष्ट मुक्त करके ही सबका कल्याण हो सकता है। सिर्फ लोग अपना-अपना काम ही ईमानदारी से करने लगे तो काफी समस्याओं का निवारण हो जाएगा। 
इन सब के बावजूद एक बात साफ है कि इतने व्यापक क्षेत्र को अपनी संस्था में शामिल करने का खामियाजा सामने आने लगा है। संस्था के लगन में कोई कमी नहीं है लेकिन सबसे अलग बात यह है कि हर तरह के रुपयों के लेन-देन, काम आदि का पूरा व्योरा इनकी वेबसाइट पर उपलब्ध है जो कि बहुत कम संस्थाएं ही करती है। संस्था की व्यापकता के कारण सभी क्षेत्रों में बराबर ध्यान नहीं दिया जा सकता। फिर भी मुख्य मुद्दा समाज के कल्याण का है तो मुसिबत जिस क्षेत्र में होगी वहीं काम करना प्राथमिकता है। आज छोटे से दफ्तर में काम करते हुए भी व्यापक सोच रखने का जज्बे की जरूरत अन्य संस्थाओं को भी है। 

Friday, July 6, 2012

मनवाधिकार हर जाति का हक़ है

वर्ण और जाति व्यवस्था की नीव तो सैकड़ो सालो पहले ही पड़ गई थी जिसका भुगतान आज उनकी पीढ़ी कमजोर, दलित लोगों को करना पड़ रहा है। जाति व्यवस्था के नाम पर लोग अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए है। आजादी के बाद की स्थिति और भी दयनीय होती जा रही है। जाति प्रथा के खिलाफ मानव अधिकार के लिए संघर्ष जारि रखते हुए  वाराणसी में डा. लेनिनि रघुवंशी और उनकी पत्नी श्रुती ने मिलकर 1996 में पीवीसीएचआर मानव अधिकार जननिग्रनी समीति और तीन साल बाद जन मित्र न्यास संस्था स्थापित किया। यहां महिलाओं, बच्चों, दलितों और आदिवासियों के लिए काम किया जाता है। इन कमजोर वर्ग को कानूनी तौर पर न्याय दिलाना और समाज में आगे लाना उनके अधिकारों का हनन होने से बचाना इनका मुख्य मकसद है। पीवीसीएचआर द्वारा एक स्कूल भी चलाया जाता है भगवानंला नाम से। भारत में लगभग 160 मिलियन लोग दलितों की श्रेणी में आते हैं।
संस्था द्वारा बुनकरों की हालत में सुधार लाने के लिए भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आवाज उठाते हैं। लेनिन के सफल कार्यों के लिए इन्हें विभिन्न अवार्डो से नवाजा गया है। 2010 में जर्मनी द्वारा अतंरराष्ट्रीय मानव अधिकार अवार्ड दिया गया। इनका कहना है कि समस्या हमारे पास ही है तो समाधान भी हमें ही करना होगा। इन सबके लिए जरूरी है इनका शिक्षित होना। जब तक यह अपने अधिकारों के बारे में जानेंगे ही नहीं तब तक आगे बढ़ने की कोशिश भी नहीं कर पाऐंगे। एक उच्च और सक्रिय नेटवर्क के माध्यम से इन पीडि़तों को मदद करने का सार्थक प्रयास किया जा रहा है। ताकि इनको अछुत न समझा जाए। बुनकरों, बंधुआ मजदरों आदि का शोषण न हो, इनको न्याय दिया जाए। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं पर इन्हें भी हक मिलना चाहिए।
केवल सरकार द्वारा आरक्षण देने से ही भला नहीं हो सकता क्योंकि इसका लाभ भी कुछ पहुंची हुई जातिया ही उठा पाती है उनका क्या जो आज भी समानता की नजर से दूर है। उत्तर भारत सबसे बुरी स्थिति में रह रहे मुसहर जनजाति की बात करें तो उन्हें अछुत ही माना जाता है। जबकि भरतीय कानून के अनुसार अछुत कहना भी अपराध है। लगभग 5-7 लाख मुसहर सिर्फ उत्तर प्रदेश में हैं। जिसपर लेनिन ने रिसर्च किया है। सोनभद्र क्षेत्र में 12वीं सदी से रहने वाले घसिया आदिवासियों को पलायन करने पर सरकार और उद्योगपतियों ने मजबूर कर दिया। उसी समुदाय की एक 70 साल की बुजुर्ग सोमरी देवी कहती है कि दनके पूवर्ज वही रहते थे। सावा कोदो की खेती करते थे। लेकिन हमें हमारे ही स्थान से भगा दिया गया। आज दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पाती है। किसी प्रकार की कोई सरकारी या गैर सरकारी सहायता हमें नहीं प्राप्त है। सिंगरौली से पलायित हुए आदिवासियों की दशा भी ऐसी ही है। उत्तर प्रदेश में अपने ही अधिकारों से अछुते आदिवासी जाति करवार, गोंड, चेरों, कोल, भुइया, बैगा, धारखार, पनिका, पत्थरी, परहिया, घसिया, अगरिया आदि को खाने का निवाला जुटाना ही मुश्किल हो जाता है कितनी ही मौते कुपोषण और शोषण के कारण हो जाती है। फिर वह आरक्षण जैसे मुद्दे को कैसे समझ सकते हैं। इस संस्था और दूसरे एनजीओ की मदद से इन्हें वह सारी सुविधाएं देने का प्रयास किया जा रहा है जिससे इनके बच्चे पढ़े, इनकी संस्कृति को बचाया जा सके। करमा नृत्य महोत्सव को फिर से शुरू किया गया।
राज्य और केन्द्र दोनों सरकारे इन जातियों को पलायन करने पर मजबूर तो करती है लेकिन यह भूल जाती है कि अब इनका क्या होगा। इनकी पारंपरिक विरासत छिनने के बाद इनको अधिकार का क्या? इस बाबत जब संस्था ने काम करना शुरू किया तो बहुत सी पुलिसिया और सरकारी अड़चने सामने आई। लोगों ने लेनिन और उनके साथियों के खिलाफ लोगों को भड़काने का आरोप भी लगाया। फिर भी एक संस्कृति को बचाने की कोशिश जारि रहीं और आगे भी इनके हक के लिए लड़ाई चलती रहेगी। मुद्दा मानव जाति का है तो सचेत होना भी आवश्यक है।

सुषमा सिंह, वाराणसी

Thursday, June 14, 2012

अनाज: न खाया जाए, न रखा जाए ?

कृषि प्रधान भारत की अर्थव्यवस्था में 60 प्रतिशत से अधिक आबादी खेती-किसानी पर ही निर्भर रहती है। भारत की इससे दयनीय स्थिति और क्या हो सकती है कि एक तरफ गरीबों के खाने के लिए  अनाज नहीं है तो दूसरी तरफ लाखों टन अनाज सरकार की ढीलाई और गोदामों में हो रही लापरवाही की वजह से खराब हो जा रहे हैं। इतना अनाज बर्बाद हो रहा है जितना अगर गरीबों में बांट दिया जा, तो वो सालों खा सकते हैं। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) भारत सरकार की खाद्य भंडारण ईकाई है जो 14 जनवरी 1965 को कार्पोरेशन एक्ट1964 के तहत अनाज कृषि प्रधान भारत की अर्थव्यवस्था में 60 प्रतिशत से अधिक आबादी खेती-किसानी पर ही निर्भर रहती है। भारत की इससे दयनीय स्थिति और क्या हो सकती है कि एक तरफ गरीबों के खाने के लिए अनाज नहीं है तो दूसरी तरफ लाखों टन अनाज सरकार की ढीलाई और गोदामों में हो रही लापरवाही की वजह से खराब हो जा रहे हैं। इतना अनाज बर्बाद हो रहा है जितना अगर गरीबों में बांट दिया जाए तो वो सालों खा सकते हैं। भारतीय खाद्य निगम (एफफसीआई) भारत सरकार की खाद्य भण्डारण ईकाई है जो 14 जनवरी 1965 को कार्पोरेशन एक्ट 1964 के तहत अनाज भण्डारण, देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली, खाद्यान्नों का भण्डारण, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और किसानों के लिए  प्रभावी समर्थन मूल्य की व्यवस्था करने के लिए  स्थापित की गई। मुख्यालय नई दिल्ली और पांच वर्षीय कार्यालय है। सरकार इसमें हर साल कुल उत्पादन का करीब 15 से 20 प्रतिशत गेंहू और कुल चावल उत्पादन का 12 से 15 प्रतिशत खरीदती है। एफफसीआई अखिल भारतीय स्तर पर डिपुओं के जरिये खाद्यान्न भण्डारण  करता है। इसमें क्रेप भण्डारण भी शामिल है। डनेज का प्रयोग  और पोलीथीन कवर आदि के जरिये  खुले में भण्डारण  किया जाता है। अखिल भारतीय स्तर पर करीब 1451 गोदाम है। केन्द्र सरकार भारतीय खाद्य निगम और राज्य एजेंसियों  के जरिये धान मोटे अनाजों और गेंहू को समर्थन मूल्य पर खरीदा करती है। इसके अलावा उत्पादकों के पास यह भी विकल्प होता है कि वे राज्य के किसी भी  एजेंसियों और खुले बाजार में जहां भी चाहे अनाज को बेच सकते हैं।

देश के कई राज्यों में अनाज भण्डारण  का बुरा हाल है। बिहार में वर्तमान हालत यह है पिछले साल 31 जुलाई 2011, केंद्रीय पूल के लिए  राज्य की चार एजेंसियों  के माध्यम से खरीदा गया 83 हजार टन गेहूं  31 मार्च 2012 तक एफफसीआइ के  गोदामों में पहुंचा ही नहीं, न ही उसका कोई हिसाब-किताब है। बिहार सरकार से गुम हुए गेहूं की तलाश करवा रही है तो एफफसीआई के अफसर पड़ताल में लग  गए है। जबकि यह एफफसीआइ के दस्तावेजों में यह दर्ज है।

बीकानेर मंडी की स्थिति यह है कि वहां लगभग दो लाख बारदाने की जरूरत है। मंडी परिसर में दो दिन की खरीद के बाद भी 75 हजार क्विंटल गेहूं  खरीद के लिए  बचे रहे। किसानों की आशाओं पर बारीस ने पहले भी तीन बार पानी फेर दिया है। सरकार ने खाजूवाला मंडी को एक लाख 15 हजार बारदाना व बीकानेर मंडी को केवल 50 हजार बारदाना उपलब्ध करवाया। यह किस आधार पर किया गया इसका कोई जवाब नहीं है। भामाशाह मंडी में बेमौसम बारिश व अव्यवस्थाओं के चलते भीगने से काफी गेहूं  खराब हो गया हैं। खराब गेहूं  की तुलाई तो हुई नहीं जिसका खामियाजा किसानों को करीब 30 लाख रुपये के नुकसान के रूप में उठाना पड़ा, इसकी भरपाई के लिए किसी के पास कोई विकल्प नहीं है। एफफसीआई ने ऐसे  गेहूं को साफ तौर पर लेने से मना कर दिया। अब किसान भी क्या करें। बूंदी जिले के रोटेदा गोराम मंदी में  सोलह दिन बाद गेहूं की तुलाई हुई। एफफसीआई ने करीब 12 बोरी भीगा हुआ गेहूं  जिसमें ढेले बंध गए थे, बैरन लौटा दिया। 26 मई नरसिंहगढ़ तहसील के गोराम मंडावर में स्थित खरीदी केंद्र पर दो परिधि  में गेहूं तुलाई के विवाद पर एक  युवक की गोली लगने से मौत भी हो गई।

अमृतसर, पंजाब के कई इलाकों में गेहूं  और चावल पिछले सालों से पड़े-पड़े सड़ चुके हैं, उन गाँव में अब बीमारियों का खतरा मडराने लगा है। इतना ही नहीं इन सड़े हुए अनाज को न हटाने के कारण से गोदामों में भी भण्डारण  की समस्या उत्पन्न हो गई है। मानसून के शुरू होते ही यहां 232 लाख टन गेहूं  आ जायेंगे जिसके रखने के लि, जगह नहीं बची है। नेशनल हाइवे के पास ही लगे  इस सरकारी गोदाम में चावल की बोरियों के कई कई फीट ऊंचे ढेर लगे  हुए  हैं जो अब किसी काम में नहीं आ सकते हैं।

मध्यप्रदेश के गेहूं  खरीद केंद्रों पर इस सीजन में गेहूं  समर्थन मूल्य तथा उस पर राज्य सरकार का बोनस देकर खरीदा गया। खरीदे गए  गेहूं  में से लगभग 90 प्रतिशत का सुरक्षित भण्डारण  भी राज्य सरकार कर चुकी है। सरकार ने किसानों से समर्थन मूल्य पर जो गेहूं  खरीदा उसका मूल्य 9,572 करोड़ रुपये  है। राज्य सरकार ने उसकी गेहूं फसल की खरीदी के लिए व्यापक इंतजाम किये हैं।

वही उ-प्र- में गेहूं क्रय केन्द्रों पर मनमानी की हद हो गई। बिचैलिये जमकर मुनाफा कमाने में जुटे हैं। एक  किसान के नाम से कई चेक जारी किये गए  हैं। बोरियों को कमी से भण्डारण खुले में किया जा रहा है। जहां प्रभारी का स्थानांतर हो गया, वहां क्रय केन्द्र को ही बंद कर दिया गया है। गेहूं  क्रय केन्द्रों से लगातार आ रहीं शिकायतों को गंभीरता से लेते हुए  उन्नाव के कई गेहूं  क्रय केंद्रों पर आकस्मिक छापा मारा गया । निरिक्षण  में बड़े पैमाने पर खामियां तो मिलीं और फतेहपुर में मंडी के जाने पर कर्मचारी व अधिकारी ताला डालकर भाग  गए।

एफफसीआई की अनाज भण्डारण  प्रणाली की खामियों के बारे में जब अदालत और सामाजिक संगठनो द्वारा आपत्तियां दर्ज की जाती हैं तो वह गोदामों की कमी का रोना रोते हुए अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन सच्चाई वह नहीं है जो दिखाई जा रही है, उसके कई गोदामों में अनाज की जगह शराब का भण्डारण  किया जा रहा है, क्योंकि वह जगह किसी और को किराये पर दे रखी है। एफसीआई में भ्रष्टाचार का आलम छाया हुआ है और दूसरी ओर केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा  विधेयक लाने की तैयारी में है। इसके अलावा कीमतों को नियंत्रित करने के लिए खुला बाजार बिक्री योजना (ओ एम् एस एस ) के जरिये  बाजार में गेहूं  की बिक्री करती है। गेहूं  और चावल का  देशों को निर्यात भी एफसीआई के भंडारों से ही होता है। मोटे अनाजों की बिक्री खुले बाजार में निविदा के जरिये होती है। यहां भी जमकर धांधली होती है। ऐसे  में सिर्फ गरीब को दोष देना कहां तक सही है। पारंपरिक  तौर पर जिस तरह अनाजों का भण्डारण घर  के भीतर ही किया जाता था क्या उस उपाय को यहां लागू नहीं किया जा सकता है। अनाज को सड़ाने की जगह भूख मिटाने के लिए नहीं इस्तेमाल किया जा सकता है। एफसीआई के मुताबिक अगले महीने की शुरुआत में सिर्फ पंजाब, हरियाणा और मध्यप्रदेश में उसके पास 476 लाख टन अनाज आ चुका होगा। इसमें से 232 लाख टन गेहूं रखने के लिए  जगह नहीं है।

एफसीआई के गोदामों में अनाज भण्डारण  की पर्याप्त क्षमता होने के बावजूद भी काफी मंडी में अनाज यहां-वहां सड़ जा रहे हैं । कारण  साफ है जिसके बीच सरकार खुद आने से बचती है। बिचैलियों के माध्यम से प्राइवेट गोदाम और वेयर हाउस किरा, पर ले रहे हैं । जिसके लिए  अफसरों को जबरजस्त कमीशन भी मिलता है। फिर क्या होना है सड़ा हुआ अनाज कौडि़यों के मोल शराब उत्पादकों को बेच दिया जाता है वहां से भी अच्छी आमदनी हो जाती है। कुछ साल पहले विशेष जरूरत पड़ने पर 1 रुपये 20 पैसे प्रति स्क्वायर फीट की दर से प्राइवेट गोदाम किराये  पर लिए  जाते थे, वहीं अब सेंट्रल वेयर हाउसिंग कारपोरेशन और स्टेट वेयर हाउसिंग कारपोरेशन के जरिये 3 रुपये प्रति स्क्वायर फीट की दर से गोदाम किराये पर लिए जा रहे हैं। सोचने वाली बात यह है कि एफसीआई अपने गोदाम दूसरों को किराये पर दे रहा है जबकि उसमें आये अनाजों का भण्डारण  बाहर करना पड़ रहा है। अगर भारत सरकार ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सुझाव पर अमल किया तो अगले कुछ महीनों बाद 72 प्रतिशत जनता को 3 रुपये प्रति किलो के हिसाब से गेहूं और 2 रुपये प्रति किलो के हिसाब से चावल मिल सकता है लेकिन यह बात हकीकत हो इसकी कोई गारंटी नहीं है। पिछले कुछ सालों में खपत की तुलना में भारी स्टाक जमा होने के कारण भी अब गोदामों में जगह नहीं बची रही है। कोल्ड स्टोरेज का अभाव, गोदामों का दूसरे कामों में उपयोग और उचित प्रबंधन न होने से भी अनाज सड़ रहा है। जबकि सरकार निजी क्षेत्र की भागीदारी से अनाज का भण्डारण  करने की बात कह रही  है। कोल्ड स्टोरेज के संबंध में उसने एक योजना विजन-2015 तैयार की है, जिसके तहत गोदामों में अनाज के संरक्षण की जिम्मेदारी इंडियन ग्रेन स्टोरेज मैनेजमेंट और रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईजीएमआरआई) को सौंपी गई है। एजेंसियों का कहना है कि एफसीआई गेहूं  का भुगतान करने में काफी विलंब करती रही है, ऐसे में उनके पास गेहूं खरीद के बजट का एक  बड़ा हिस्सा फंस गया है और वे काश्तकारों का भी पेमेंट नहीं कर पा रही हैं। आरएफसी को छोड़कर बाकी सभी सरकारी एजेंसियों  को शुरूआत में ही क्षेत्रीय कार्यालय स्तर से बजट जारी किया जाता है। उसी समय वे काश्तकारों का  गेहूं खरीदती हैं। इसके बाद किसानों से खरीदे गए  गेहूं  की एफसीआई को डिलीवरी देने के बाद भुगतान एजेंसियों के पास पहुंच जाता है। यह चक्र चलता रहे, तो एजेंसियों  के पास बजट बरकरार रहता है। जबकि एफसीआई के पास एजेंसियों ने जो गेहूं  भेजा है, उसका करीब 50 फीसदी भुगतान अभी तक नहीं हो सका है, जिसकी कीमत करीब ढाई करोड़ हैं। गेहूं  का पेमेंट न मिलने से इनके सामने बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया है। अगले 18 महीने में खाद्यान्न के भण्डारण  की समस्या का आंशिक समाधान होने की संभावना है जताई जा रही है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र  के भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने 10 वर्षीय गारंटी योजना के तहत 80 लाख टन क्षमता के नए  गोदामों के निर्माण  कार्य को पास कर दिया है। एफसीआई के पास इस समय 130 लाख टन अनाज भण्डारण  की क्षमता है जबकि उसने 150 लाख टन से ज्यादा क्षमता वाले गोदाम सरकार और निजी एजेंसियों  से किराये पर ले रखे हैं। इसके पास ढंके हुए और खंभे वाले गोदाम हैं और इसकी क्षमता 26 .2 लाख टन है जबकि 5-5 लाख टन भण्डारण  क्षमता विभिन्न निजी कंपनियों से किराये पर ली गई है। बजट 2012-13 में वित्त मंत्री  ने भण्डारण  की नई क्षमता के निर्माण की खातिर 5000 करोड़ रुपये के आवंटन का प्रस्ताव रखा है। पिछले साल के बजट में इस मद में 2000 करोड़ रुपये आवंटित किये गए थे। पिछले ,क साल में सरकार ने 20 लाख टन भण्डारण की अतिरिक्त क्षमता को मंजूरी दी है, जिसके जल्द पूरा होने की संभावना है। देश में लाजिस्टिक की लागत जीडीपी का करीब 14 फीसदी है। लिहाजा पीपीपी माडल को प्रोत्साहित किया जाने की सलाह गलत नहीं है। ग्रामीण बुनियादी ढांचा विकास कोष  के तहत गोदामों के निर्माण पर और अधिक व्यय में भारी बढ़ोतरी सही समय पर उठाया गया उचित कदम है। ऐसे में सरकार का जोर ब्याज की लागत घटने पर हो तो ज्यादा बेहतर काम हो सकता है। और ऐसा तभी संभव हो सकता है जब निवेशकों को आरआईडीएफ को कोष का वितरण सीधे तौर पर नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक) द्वारा किया जाए। इससे बैंकों की मध्यस्थता लागत को खत्म किया जा सकता है।









Wednesday, May 23, 2012

रंगमंच में "थिएटर आँफ रेलेवेंस"

रंगमंच को नया रूप देने की प्रयास की गाथा को संपादक संजीव निगम ने मंजुल भरद्वाज के "थिएटर आँफ रेलेवेंस" किताब के जरिये दुनिया के सामने लाया है | इस किताब में रंगमंच की पेचीदगी को सुलझाने के लिए कलाकार मंजुल से किये गए सवाल जवाब तो पढ़ने को मिलेंगे ही साथ ही थिएटर की इस नयी परिभाषा को व्यापक तौर से समझने का मौका भी | भारत जैसी पृष्ठभूमि में आज नाटकों की दशा बहुत अच्छी नहीं है | रंगमंच के परिवेश और दर्शकों के मन को भापते हुए जिस थिएटर का अनुकरण हुआ, उसी सोच को अब पाठकों तक पहुँचाने की मुहिम इस किताब में दिख रही है | मरती हुई प्रतिभा को जगाने के साथ ही 50 ,000 बच्चो को स्कूल की रह इस थिएटर ने दिखाई | किताब की शुरुआत तो काफी पहले ही हो गई थी लेकिन इसके आने में समय लगा | 90 के दशक से प्रारंभ इस अभियान की मर्म कहानी भी यहाँ जानने को मिलेगी किस प्रकार थिएटर आँफ रेलेवेंस की स्थापना हुई और आज किस मुकाम तक जा चुकी है | यह सच है की नाटक हमारे देश काल वातावरण के अनुसार हो तो उसका प्रभाव आम जनता पर ज्यादा होगा | इसके लिए देश में ऐसी प्रतिभावों को तलाश कर उन्हें सामने लाना चाहिये | जो नाट्यकला को सिर्फ जीवित ही न रखे अपितु उसे महान कला बनाये | इसी प्रयास के तौर पर आई इस किताब में थिएटर का नया रंग किस तरह से सबसे अलग है यह पढ़ कर ही निर्णय किया जा सकता है |

सुषमा सिंह

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Saturday, April 14, 2012

एनजीओ समाज का अहम हिस्सा है

MR. SANTANU MISHRA

आई एम कलाम डाक्युमेंट्री बनाने वाली स्माइल फाउंडेसन राष्ट्रीय स्तर की 2002 में स्थापित विकास संस्था है। वर्तमान समय में इसकी पहुँच सीधे तौर पर 2 लाख गरीब बच्चों  और युवाओं तक है। देश के 25 राज्यों में 160 कल्याणकारी प्रोजेक्ट चल रहे हैं। पहला मिशन एजुकेशन दूसरा स्टेप तीसरा स्मसइल ऑन व्यील और चौथा स्वाभिमान। इस संस्था के निदेशक सांतनु मिश्रा से सुषमा सिंह की एनजीओ मुद्दे पर आधारित बातचीत का कुछ अंश प्रस्तुत है -

एनजीओ चलाने के पीछे वजह क्या होती है। पैसा या मुद्दा?
एनजीओ को चलाने के लिए कारण ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। स्माइल की शुरूआत का भी एक कारण है कमजोर वर्ग को आगे लाने की भावुकता से इस फाउंडेसन की नीव पड़ी। हम समाज को क्या और कैसे दे सकते हैं। इस सोच के साथ ही प्राइमरी स्तर पर बच्चों को शिक्षित कर समाज की जड़ो को मजबूत करने का प्रयास किया गया।  मजबूरी में अपना बचपन खो रहे बच्चों को सही दिशा देना ही स्माइल की कोशिश है। अपने इसी मुद्दे के साथ हम आज भी काम कर रहे हैं। यहां पर बहुत सी समस्याएं है केवल कुछ एनजीओं से इसका समाधान नहीं हो सकता है। 
 
प्राकृतिक आपदाओं के ठीक बाद एनजीओ की संख्या में अचानक इतनी ज्यादा बढ़ोत्तरी के क्या कारण है?
एनजीओ प्राकृतिक आपदाओं में दो प्रकार से काम करती है। एक तो आपदाओं में तुरन्त राहत पहुंचाने का दूसरा उनके पुर्नवास का। आपदाओं के बाद भी लोगों के पुनवार्स का काम होता है, जो दीर्घ कालीन है। ऐसे समय में समाजिक मदद के रूप में एनजीओ एक विकल्प के तौर पर सामने आते हैं। आपदा जितनी बड़ी होती है राहत कार्य की आवश्यकता उतनी ही बढ़ जाती है। कश्मीर में हमने लगातार दो महीने पीड़ितों की मदद की। सुनामी में मछुवारों को उनके रोजमर्रा के सामान देकर उनकी रोजगार में मदद की। संख्या में तेजी की बात है तो डोनर एजेन्सी, सरकार और आम लोगों को जागरूक होने की जरूरत है। व्यवस्था को मजबूत और पारदर्शी होना होगा। मदद लोगों तक पहुंचनी चाहिए।
 
क्या एनजीओ को मानवाधिकार से जोड़ कर देखा जा सकता है?
मनवाधिकार भी एनजीओ के कार्य का एक हिस्सा है। बच्चों को शिक्षा प्रदान करना भी उनका अधिकार है। उन्हें सिर्फ पकड़ कर पढ़ाने से ज्यादा जरूरी है उनके जीवन में सुधार करना ताकि वह फिर से गलत राह पर न जा सके। एक बच्चा अगर शिक्षित हो कर कामयाबी पाता है तो उसका पूरा परिवार आगे बढ़ता है। स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं भी इसके अंर्तगत आती है। जैसे यदि किसी रोग का पता पहले लग जाए तो इलाज संभव है और उसका स्वस्थ होना मानवाधिकार है। जानकारी के अभाव में लोगों का जान जा रही है।
 
फंड की जरूरत सभी को होती है। लेकिन क्या इसका कोई दायरा होना चाहिए?
हां फंड का दायरा होना चाहिए और है भी। सरकारी तौर पर पंजीकरण से इसकी शुरूआत हो जाती है। जिसमें कानून के मापदंड पर खरा उतरने के बाद ही मान्यता मिलती है। फंड की जानकारी देने के साथ ही रिर्टन भी फाइल करना होता है। जिसमें तहकीकात होने के साथ करारनामा भी होता है। कार्य क्षमता के हिसाब से फंड दिया जाता है। जैसे यूनीसेफ को 50 हजार करोड़ मिला लेकिन हमारे यहां समस्याएं इतनी है कि सही काम करने पर यह फंड भी कम पड़ जाते हैं। फंड का इस्तेमाल जरूरत के अनुसार होना चाहिए।
 
एनजीओ के साथ सरकार का तालमेल कैसा है। खास तौर पर कुंडनकुल्लम मामले में?
कुछ संस्थाएं तो सरकार के साथ मिलकर काम करती है। जैसे डब्लूएचओ। अगर सरकार मदद ना करें तो हम कितनी जिम्मेदारी उठा सकते हैं। हम बच्चों को बेसिक शिक्षा देने के बाद उनका सरकारी स्कूलों में दाखिला करवाते हैं। यहां सरकार के खिलाफ जाने का कोई मतलब नहीं है। दोनों को मिल कर काम करने में ही समाज का भला हो सकता है। सरकार हमने ही बनाया है। उन्हें देश के बारे में सोचने का पूरा अधिकार है। वो हमारी रक्षा के लिए अच्छा या बुरा कदम उठा सकती है। अपनी जगह पर सभी सही होते हैं। करीब 20 लाख एनजीओं में से सिर्फ कुछ के बारे में यदि कोई बयान आता है तो कोई कारण होगा। क्या गलत है क्या सही जनता भी जानती है। यह एक लोकतांत्रिक देश है।
 
एनजीओ के कारण बहुत से क्षेत्रों में सुधार भी हुए है और जागरूकता भी आई है। लेकिन क्या अब एनजीओ सिर्फ मुनाफे के लिए लिए खोले जा रहे हैं?
हमारा देश अभी बदलाव के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में हर चीज व्यवस्थित हो जाए यह संभव नहीं है। विकासशील देश में एनजीओ अच्छा काम करते हैं। तो यह सम्मान की बात होती है। एनजीओ खुद में रेगुलेट होना चाहिए। एनजीओ चलाने के साथ ही पूर्ण जानकारी भी होनी चाहिए। जिसके अभाव में आज एनजीओ अपनी दिशा से भटक रहे हैं। पैसों का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। हम इसके खिलाफ है। मीडिया का भी बड़ा रोल हो सकता है इस संबंध में। लोगों को जागरूक करने में मदद कर सकती है। समाज के मदद के लिए सभी को आगे आना चाहिए। डोनर का पैसा गरीबों तक पहुंचना चाहिए। उदाहरण के तौर पर पोलियों हमारे देश से खत्म हो चुका है।
 
एक एनजीओ के तौर पर आपका देश के भविष्य के लिए क्या संदेश है?
एनजीओ को अलग से देखने की जरूरत नहीं है। यह समाज के लिए है हमारे समाज का ही एक हिस्सा है। साकारात्मक रूप में सबको साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है। पढ़े लिखे लोगों को और अधिक रूचि लेनी चाहिए। सब कुछ छोडत्रकर काम करने की जगह कुछ समय निकाल कर भी समाज के लिए सार्थक काम किया जा सकता है। मानसिकता में भी बदलाव की खास जरूरत है।